Views and Counterviews 95

 जाने क्यों ये विडियो बार-बार मेरे यूट्यूब पर आ रहे हैं? कह रहे हों जैसे, सुनो हमें? जाने क्यों लगा, की ये तो रौचक हैं      प्रशांत किशोर  V...

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Saturday, April 26, 2025

ABCDs of Views and Counterviews? 74

आसानी से पहचान में आने वाले जुर्म 

 ये, घर वालों को बताने पर, हमें तो पता नहीं से शुरु होते हैं? और कहाँ तक पहुँचते हैं? 

अगर आपका कोई इंसान, कई दिन घर ना आए या बात ना करे, तो मान के चलो की कहीं कोई काँड रचा जा रहा है। उसके आसपास का इकोसिस्टम उसे brainwash कर रहा है? या इसके आगे भी कुछ है?

2-कनाल की कहानी जब सिर्फ 2-कनाल की ना रहकर, पूरा किला हड़पने की तरफ बढ़ने लगे? सिर्फ किला या आदमी भी? भाभी को इन्हीं गुंडों ने खाया? शिक्षा? शिक्षा नहीं, धंधा है? आदमी तक खाने का? एक ऐसा गंदा धंधा, जो NGO या Educational Society के नाम पर, ना सिर्फ अच्छा-खासा कमाई का साधन है, बल्की, आसपास के भाइयों की धोखे से या जाल बिछा कर ज़मीन हड़पने का भी साधन है?   

ये ज़मीन हड़पने की कहानियाँ, हैं बड़ी अजीब वैसे? क्या ये इंसान भी खाती हैं? और वो भी ऐसे, की चाचे, ताऊ, दादे, सारे उसमें लगे पड़े हों? 2002 में शायद, ये आधा किला दादा ने दोनों पोतों के नाम कराया। 2005? छोटे भाई की भाभी से शादी हुई। थोड़े ड्रामे के साथ। मगर ड्रामा क्यों? सिस्टम, इकोसिस्टम? जाहिल, गँवारपठ्ठों का इलाका? बड़े भाई ने होने वाली भाभी को बेहुदा सुना कर, स्कूल से चलता कर दिया। अरे धंधे की दुकान को डुबोओगे? जब मुझे पता चला तो गुस्सा आया, और स्कूल वाली छोटी भाभी को सुना दिया। अब सारा क्या गाना, की उन्होंने मुझे क्या-क्या सुनाया? खैर! भाई की शादी हुई। और छोटे-मोटे जाहिल इलाके वाले कमेंट्री वाले कारनामे भी। जिसमें ना ऐसे लोगों ने बहु को बक्सा और ना ही बहन-बेटी को। आया गया हुआ? 

नहीं। एक वक़्त फिर आया। जिसने और भी बहुत कुछ दिखाया। जब आप समझें, अब ये इलाका इतना गँवार और जाहिल नहीं रहा? शायद हाँ और शायद ना भी? सबकुछ भला कहाँ बदलता है? मगर, यहाँ कुछ ऐसे विवाद देखे सुने, जिन्हें सोच समझकर लगे, ये क्या है? तकरीबन दो दशक बाद कुछ चीज़ें बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से खुद को दोहराती हैं जैसे? अबकी बार, वैसा कुछ कहाँ हुआ? अरे नहीं, उससे भी थोड़ा आगे? यहाँ तो जाती भी बदली हुई है? शाबाश लड़की, कमाल ही कर दिया ये तो? अब ये मैं शाबाशी किसे दे रही हूँ? अरे भई, अगली पीढ़ी आ चुकी है। नहले पे दहला जैसे? अब? डूबी नहीं वो दुकान? अब कोई असर नहीं पड़ा, उस दुकान पर? 

अरे, अब तो भाभी ही नहीं हैं, जो वो ये सब कह पाते। उन्हें तो शिक्षा की दुकान वाले खा गए ना? कोई नहीं, नन्द है ना, वो आईना दिखाने के लिए? क्या छोटी-छोटी बातों पे बकबक करने लगी तू भी। जो भी है, ये बदलाव मस्त है। 

मगर, उन शिक्षा की दूकान वालों को तुम आईना कैसे दिखा सकते हो? वो कहाँ बदले हैं? वो तो आज भी उसी दूकान के तौर-तरीकों पर हैं। बल्की, अगली पीढ़ी वाले तो और भी मस्त? भतीजे, चाचा की ज़मीन हड़पने लगे, दो बोतलों के बदले? "हमें तो पता नहीं?" या "बुआ जी सेफ्टी के लिए ली है?" से ये कहाँ आ गए, साल भर के अंदर ही? "वो ज़मीन मेरे नाम है?" अच्छा बेटे? बताने के लिए शुक्रिया। मौत पे ज़मीन खाई, वो भी धोखे से? मगर हज़म हो पाएगी क्या वो? उसी ज़मीन के नाम पर अगला मोहरा कौन हो सकता है, इसी conflict of interest वाली राजनीती का? उसी ज़मीन के नाम पर आगे भी आदमी खाए जाएँगे क्या? शायद? मगर, अबकी बार वो नंबर या कोढ़ कौन होगा? Materialism can be so haevy compare to human life? क्यूँकि, राजनीती नाम ही conflict of interest की राजनीती का है? और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी ऐसे ही चलती रहती है? राजनीती वाले दुष्परिणाम कब और कहाँ बताते हैं? अगर पता हों तब भी? वो तो दबाते हैं। जो बताने की कोशिश करे, उसे खासकर दबाते हैं? वो कब और क्या कैसे घड़ेंगे, ये निर्भर करता है की उस वक़्त फायदा किसमें होगा? फिर ज़मीन क्या, चाहे वो बिमारियाँ हों या मौतें?             

और मौत का मतलब ही, इस धंधे में ज़मीन का हड़पना है? Conflict creations? But by whom? And how?  

कई बार कहीं-कहीं डॉक्युमेंट्स में आता है ना, conflict of interest? वो यही सब है क्या? कैसे रचती हैं, इसे पार्टियाँ? लोभ, लालच देकर? या किसी भी तरह का डर दिखाकर? या भ्राँति पैदा कर? ये सब तो है ही। उसके साथ-साथ और भी कितनी ही तरह के हथकँडे अपनाकर? 

बुरे वक़्त में शायद कहीं न कहीं, थोड़ा-बहुत अच्छा भी होता है? खासकर, जब लगे, जैसे, आसपास सारा तो तुम्हें खाने पे ही लगा है? शायद ऐसे घर में लोगों के छोटे-मोटे आपसी मतभेद कम होने लगते हैं? या शायद समझ आने लगता है, कौन कहाँ तक साथ देगा और कौन नहीं?

जब किसी को ज़मीन चाहिए। किसी को नौकरी। किसी को पैसे। और किसी को तो आदमी ही खाने हों जैसे? तुम तो कर लोगे। कोई और नौकरी पकड़ लोगे। और पैसा कमा लोगे।  मगर इनसे कहाँ हो पाएगा? ये इत्ती-सी ज़मीन? इसपे भी क्या तू-तड़ाक करना। आगे के रस्ते देखो। शायद ऐसी भी आदत नहीं पालनी चाहिए, की लोगबाग ऐसा कहते वक़्त थोड़ा-सा भी ना सोचें, की कहीं तो रुको?  

हाँ कहीं तो रुको का कोई और भी पहलू है, जमीन से आगे भी? जानने की कोशिश करें अगली पोस्ट में?   

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