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 जाने क्यों ये विडियो बार-बार मेरे यूट्यूब पर आ रहे हैं? कह रहे हों जैसे, सुनो हमें? जाने क्यों लगा, की ये तो रौचक हैं      प्रशांत किशोर  V...

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Sunday, September 28, 2025

Views and Counterviews 95

 जाने क्यों ये विडियो बार-बार मेरे यूट्यूब पर आ रहे हैं? कह रहे हों जैसे, सुनो हमें?

जाने क्यों लगा, की ये तो रौचक हैं    

प्रशांत किशोर  Vs अशोक चौधरी 

बिहार की राजनीती और इलेक्शंस?

और?

आरोप, प्रत्यारोप और हकीकत?

कोई जाना पहचाना सा नाम, और लगे किस्सा कहानी भी जैसे एक जैसा सा है? अब है या नहीं, ये वाद विवाद का विषय हो सकता है। क्यूँकि, अब तक जो ऐसे-ऐसे केसों से समझ आया, वो ये, की हर केस अलग है। लोगबाग, उनके हालात और औकात का भी अक्सर काफी फर्क मिलता है और कभी-कभी तो केस बहुत ही hyped, manipulated और twisted भी लगते है। शायद इसीलिए, वो सामान्तर घड़ाई जैसे हैं। पता नहीं इस तरह के विडियो टार्गेटेड आपके यूट्यूब पर मिलते हैं या लोगों को लगता है की वो शायद कोई सहायता कर सकते हैं? और शायद ऐसे मैं उनका अपना भी कोई हित निहित हो? और हो सकता है, ये सिर्फ एल्गोरिथ्म्स का धमाल हो? क्यूँकि, ऐसा सा कुछ मेरे ब्लॉग पर एक अलग सीरीज करके पोस्ट हुआ है। 

"जमीनखोरों का जमीनी धँधा, राजनीती और शिक्षा के नाम पर"        

https://zameenkhoronkezameenidhandhe.blogspot.com/

इससे सम्बंधित अब तक कई विडियो देख चुकी। उसका निचोड़ जो मुझे समझ आया 

अशोक चौधरी ने 2021 से 2023 या 24 (?) तक कुछ प्रॉपर्टी खरीदी। ज्यादातर किसी ट्रस्ट के नाम पर। वो ट्रस्ट जिसने इतने सालों में कोई खास प्रॉपर्टी नहीं खरीदी हुई, अचानक से इतनी प्रॉपर्टी 2-3 सालों में ही खरीद ली? कैसे? इतना पैसा कहाँ से आया?

ट्रस्ट का ज्यादातर पैसा हर साल कहीं न कहीं लगाना होता है।  आप उसे इकठ्ठा करके नहीं बैठ सकते। अगर ऐसा करोगे, तो टैक्स रिटर्न्स में दिखाना होगा। अगर टैक्स रिटर्न्स में नहीं दिखा रहे, इसका साफ़ मतलब छुपा रहे हो। अब ट्रस्ट क्यूँकि कई लोगों के नाम होता है, तो ऐसे घपले की संभावना ज्यादा रहती है?   

ऐसे घपलों को रोकने का एकमात्र उपाय कोई भी या किसी भी तरह का ट्रस्ट हो, वो अपनी प्रॉपर्टी की सारी जानकारी अपने पोर्टल पर उपलभ्ध कराए। अगर किसी को वहाँ जानकारी न मिले, तो कोई भी ऐसी जानकारी उस ट्रस्ट से माँग सकता है। और RTI के तहत उन्हें उपलब्ध करानी पड़ेगी। तो बहुत से घपले तो यहीं ख़त्म हो जाते हैं। 

ऐसे घपले विवाद कब बनते हैं? जब मेरे जैसा कोई ऐसे किसी घपले को जनता के सामने रखता है और ऐसा कोई हिसाब-किताब माँगने लगता है। और जिसे ये हिसाब-किताब बिना माँगे देना चाहिए, वो या तो दादागिरी दिखाने लगता है या बचकर भागने लगता है। स्कूल जैसे ट्रस्टों के हाल ये हैं की वो जिनकी कमाई का खाते हैं (अध्यापक), उन्हीं को निचोड़ देते हैं और खुद धन्ना सेठ बन जाते हैं। अध्यापक, एक घर बनाने को तरस जाता है और ये धन्ना सेठ? करोड़ों अरबों के मालिक? यही नहीं, ऐसे जानकारी माँगने वाले लोगों को, ये धन्ना सेठ हद दर्जे के गिरे हुए स्तर तक टारगेट भी करते हैं। कहीं-कहीं तो लोग अपनी जान तक गवाँ देते हैं। जैसे भाभी के केस में हुआ। हाँ। आज के दौर में रिसोर्सेज वाले लोगबाग मार ऐसे करते हैं की मारता कोई है और नाम कहीं और अपनों पे ही गढ़ने की कोशिशें होती हैं।  

मगर कैसे? सरकारों या राजनितिक पार्टियों की मिलीभगत के बगैर ये संभव है क्या? जानते हैं आगे     

Wednesday, September 24, 2025

Views and Counterviews 94

 Rajdeep Sardesai Book Show 

on Former CJI DY Chanderchud's book

Why The Constitution Matters


That's an interesting interview

And an interesting library having two big experts of their own field


Conspiracy: "Jagadhary to Indri"
Wonder, if that version also suits here?
Topic for some other post.

Straight talk on coded matters, from my viewpoint?

University commitees and most commitee members bhagti of this or that political party, destroyed much than one can even imagine. These committee members are not just murderers of democracy, but of so many people outside that University boundary. And directly or indirectly, they are bearing the fruits of those results in their own life or near and dear ones lives also. How strange? How some things in some files impact lives far away from those files? Somehow even firing back those people or their surrounding, who took decisions in dadagiri or fear, just because they could? Kinda ripple effects or echo sounds? The voice or the decision you took, gone far away and then came back to you, ditto same? No. In some cases, not even ditto same, but highly amplified and so many times even manipulated or twisted by political parties. They say, that's how system is working worldwide?

Fact is constitution is nowhere in the world, forget in India. The more anyone realises the ways of working of this system, the more one feels disgust about that. Amid such chaos, I wonder at times, how people are managing whatever remains on the name of democary in this world? In India, it's total dictatorship, there is no such thing as democracy. 

Go a bit deeper to the system and you will realise the impact at that micro level or hit at that concious level, where you can watch and even feel diseases initiation point, proliferation and then full blown diseases. Full blown diseases? Or highly manipulated and twisted angles, facts of such a synthesis, in reality can be entirely something else. At that level, you can watch and feel deaths err murders or suicides (again murders), happening in front of your eyes. And interestingly enough, they are opening your eyes to those facts like showing and telling you about the "Show, Don't Tell".

Here show is the stage of real people and their lives, which are changing day by day, minute by minute, second by second, by the impulses of the system they are living or the enforcements by political parties in that system. And what if someone says in a court, that look these are the proofs of what I said?

The subtle difference between proof and synthesis is again matter of expertise? It's something like the difference between natural and artificial. Then be it intelligence or years or decades after synthesis of something. Beyond that, resources also matters. That's why with more and more tech integrated systems, inequalities between people will only grow further.
Most people in the less educated societies like India cannot even understand these systems. They are available only to selected. Then how they would fight such tech integrated mighties? 

Education
Only education can dissolve these inequalities in any society, irrispective of anyone's birth and related circumstances. Quality education, not the kind of education, we have in most states of India. So people who talk about such education do catch attention. But question is, if catching the attention only would do that magic to get rid of such inequilities? Or these are only ways to generate money for such purposes or other purposes like for politics only? Topic for some other posts. People who are enganged in such conversastion or task would be the focus in these posts.

Monday, September 22, 2025

Views and Counterviews 93

इस साल थोड़ा बहुत जो नया सा सीखने, समझने को मिला, वो रौचक रहा। ये नया, पिछले साल इलेक्शन के दौरान, राहुल कवँल के एक इलेक्शन रिजल्ट वाले दिन के एक खास प्रोग्राम के बाद शुरु हुआ। जब मोदी की सीट, BJP की बोलना चाहिए, 240 पर अटक गई? उसके बाद राहुल कवँल को किसी और चैनल में भी देखा और उस चैनल की कुछ खास टीम को भी। और मैं जाने क्यों VY Travelogue के अपने किसी फोल्डर में पहुँच गई, जिसमें यहाँ वहाँ के ट्रेवल की फोटो या विडियो हैं। और ऐसा लगा, ये तो सच में Time Machine जैसा सा नहीं है? और यहीं से शुरु हुआ, ढेर सारे प्रशनों के साथ, VY-Travelogue? A Time Machine? 

कहीं ऐसा सा कुछ भी पढ़ने को मिला, की उलझ रहे हो, घर से निकल जैसे दुश्मनों के बाड़े में। दुश्मनों के बाड़े में? ये क्या है? ये शायद एक खास तरह का zoo है। जैसे वनतारा? या जैसे एक्सपेरिमेंटल कोई भी animal house? वैसे Green House भी हो सकता है? या शायद कोई माइक्रोब्स लैब भी? और शायद किसी तरह की एक्सपेरीमैन्टल  जेल भी? खैर। मीडिया वालों ने मीडिया में थोड़ा और रुची को बढ़ा दिया। उसमें तड़के लगे कुछ नेताओं के खास प्रोग्रामों से। 

जैसे?

Earlier education minister, Delhi 

मनीष जी अच्छा काम कर रहे हैं शायद? 

 Mic? Voice? Teacher?

Arunachal Pradesh and Manish Sisodia on education?

वैसे हरियाना का या फ़िलहाल दिल्ली का शिक्षा मंत्री कौन है? 

ढूंढो, शायद गूगल से पता चल जाए?

वैसे ये समझ नहीं आया, की मनीष सिसोदिआ को अरुणाचल में ही ऐसा क्या खास नज़र आया? ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे नज़ारे तो आसपास के ही कई राज्यों से भी मिल जाएँगे शायद?  जो नेता लोग शिक्षा की बात करते हैं, क्या वो सच में ही शिक्षा की बात करते हैं या इलेक्शन के घपलों की तरह, उनमें भी घपले ही होते हैं या कहें की सिर्फ और सिर्फ राजनीती ही होती है?

ऐसे ही, प्रशांत किशोर के बिहार के वादों के बारे में हो सकता है? उनका बिहार के लिए शिक्षा और खासकर, स्कूलों के लिए नजरिया? अजीबोगरीब सिस्टम में, अजीबोगरीब तरीकों से राजनीती? मुझे समझ नहीं आता, की ये राजनीती इतनी कोढ़ी ना होकर, सीधे-सीधे क्यों नहीं हो सकती? जैसा की सीधा-सीधा किसी भी संविधान में लिखा होता है। इसके जवाब में कोई पोडकास्ट, कोई विडियो, कोई इंटरव्यू या कोई खास तरह का प्रोग्राम मिलेगा कहीं? हो सकता है, की आगे की पोस्ट वही हो। 

Sunday, September 21, 2025

Vijay, Versity, Views and Counterviews 92

 Renewed Passport? 

मस्त। पर ये क्या? अब ये कैसा अरन्तु-परन्तु रह गया?

पासपोर्ट ऑफिस वालों ने कुछ ऐसा बदल दिया, जिसके लिए आपने फॉर्म तक नहीं भरा। नए पासपोर्ट में पता बदल दिया। मेरे बिना अप्लाई किए। हैं ना मस्त लोग? मैं अपने सभी पहचान पत्रों में अपना Permanant address लिखती हूँ। यूनिवर्सिटी का नही। पासपोर्ट ऑफिस वालों ने यूनिवर्सिटी का पता लिख दिया, मेरे गाँव के पते को हटाकर। क्या कर लोगे? फिर से धक्के खाओ? 

फिर से पासपोर्ट ऑफिस फ़ोन किया तो जवाब मिला, पासपोर्ट में temporary पते से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। ये आपको कहीं जाने से नहीं रोकने वाला।    

फिर बदला ही क्यों? वो भी धोखे से। मैंने तो बदलवाने के लिए अप्लाई ही नहीं किया था। छोटे-मोटे लोगों के साथ, ऐसी-ऐसी, छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं, यहाँ वहाँ? यही? ज्यादा दिमाग पर ना लें?

या इससे आगे भी कुछ?

इससे आगे भी कुछ? उन्होंने इन सालों में दुनियाँ जहाँ के हथकंडे अपना नौकरी से तो चलता कर दिया, चाहे वो resignation मैंने अपनी मर्जी से दिया हो। मगर, अभी भी बहुत कुछ रह गया, जो नाम के इन जालों में उलझा पड़ा है। क्या है वो? NPS 100% एक बार में? या पेँशन? अरे 4 साल हो गए नौकरी छोड़े, और अभी तक ये हुआ नहीं? क्यों?

फिर से विजय दाँगी?

विजय कुमारी?

या विजय कुमारी दाँगी?

कितनी इमेल्स और कॉल्स? और क्यों? 

पासपोर्ट में जहाँ पता बिना अप्लाई किए बदला, तो NPS में ना सिर्फ नाम, बल्की, फ़ोन नंबर भी। वहाँ मेरे फ़ोन नंबर का एक आखिरी नंबर बदल दिया। तो आप वो अकॉउंट ही नहीं खोल पाएँगे। उससे आगे तो करेंगे ही क्या? नहीं तो आप अपना अकॉउंट खुद मैनेज कर सकते हैं। पहले मैं उसे खोल लेती थी। ये अभी 2-3 साल से हुआ है। शायद दो पार्टियों की आपसी लड़ाई? हालाँकि, यहाँ भी NPS पहचान पत्र (कार्ड) में नाम विजय दाँगी ही है। फिर भी ऐसा कैसे हो रहा है? जानने की कोशिश करते हैं आगे। कभी-कभी, बहुत कुछ मेरे भी सिर के ऊप्पर से जाता है। यहाँ-वहाँ पूछना पड़ता है। और बहुत कुछ तो खबरों और आसपास के बदलावों या किस्से कहानियों से थोड़ा बहुत समझ आता है।  

Vijay, Versity, Views and Counterviews 91

अपने बहन भाईयों में बड़े होने के कई फायदे और नुकसान होते हैं। उसपर आप किसी ऐसे घर में पहला बच्चा हों, जहाँ उस पहले बच्चे के आने का इंतजार, उस वक़्त के हिसाब से थोड़ा सामान्य से ज्यादा हो। आप एक ऐसे दौर में, एक ऐसे समाज में पैदा हुए हों, जहाँ लड़के की अहमियत लड़की से ज्यादा हो और इंतजार लड़के के आने का हो, मगर? लड़की आ जाए? वो भी इतने इंतजार के बाद। जिस लड़के का नाम तक पहले ही सोच लिया गया हो? और आ जाए लड़की? क्या होगा? बच्चा पहला है तो स्वागत तो होगा, मगर नाम वही लड़के वाला मिलेगा। यहीं से शायद बड़ी बहन होने के थोड़े से और फायदे या नुकसान हो जाते हैं। शायद हाँ और शायद ना? ये हमारे समाज में कितने ही घरों की कहानी हो सकती है। अगला बच्चा अगर लड़का हो, तो वो शायद काफी कुछ कॉउंटर कर देता है? मगर ऐसा भी नहीं है की इससे उस इंतजार में अवतारी की कोई खास अहमियत कम हो जाती है?

इस सबको ऐसे ना देखकर, क्या हो अगर हम कोढ़ की दुनियाँ की नजर से देखने लगें? और लो जी, नाम में ही उलझ गए। इस पार्टी की सैटिंग में आपका नाम फिट है। मगर उस पार्टी की सैटिंग में नहीं है। आप राजनीती को पसंद ही नहीं करते। राजनीती मतलब बड़ा ही उलूल-जुलूल सा अजीबोगरीब-सा खेल है। इन सबसे जितना बच सकें, बचें। पर कोढों वाले ही बताते हैं, की राजनीती से बचना मुश्किल है, चाहे आप उसे कितना भी नापसंद करें। हाँ, उसे समझकर, जितना भी समझ आ सके, आगे बढ़ते रहना थोड़ा आसान हो सकता है। ये नाम गड़बड़ी की कहानी भी ऐसा नहीं की सिर्फ मेरी हो। यहाँ तो पहले नाम के बाद वाले adjective type शब्दों से दिक्कत रही। मगर कहीं-कहीं तो इस राजनीती ने लोगों का पहला नाम ही बदल डाला। ऐसा क्या होगा आम इंसानों के नामों में भी, की राजनीती को आपके नाम तक से दिक्कत हो? किसी भी इंसान का नाम, उसकी पहली पहचान है। दुनियाँ आपको पुकारती या जानती ही उस नाम से है। वो आपकी पहली पहचान और किसी भी सिस्टम में पहला पहचान पत्र है। उसके साथ खिलवाड़, मतलब आपकी ज़िंदगी के साथ खिलवाड़। आपको जिस पहचान की अहमियत तक नहीं पता, उसकी अहमियत इन जुआरी राजनितिक पार्टियों को है। 

कैसे? जानने की कोशिश करें?  

पैदाइशी नाम, विजय 

10वीं के सर्टिफिकेट में जाने वो कैसे, विजय कुमारी हो गया? या शायद मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया? और PhD की डिग्री तक वही चला। PhD की डिग्री में बदलवाने की कोशिश के बावजूद। 

मैंने 2007 में अपने नाम विजय से कुमारी नाम का adjective हटाकर दांगी रख लिया, ऑफिसियल तरीके से। मगर उस ऑफिसियल तरीके में बदलने वालों ने इतना कुछ बदल दिया, की लगे ये क्या बकवास है? और यही सब वजह रही की वो PhD की डिग्री में भी विजय कुमारी ही रहा। मगर विजय जैसे जिद्दी इंसान को कोई कहे की हम तेरे कहे अनुसार तेरे नाम नहीं बदलेंगे, तेरा नाम वही रहेगा जो हम चाहेंगे? कैसे हज़म होगा? यहाँ से सिलसिला शुरु हुआ हर डॉक्यूमेंट में उस नाम को सही करने का। वो नौकरी से शुरु हुआ और हर डॉक्यूमेंट में बदलता चला गया। मगर? इन्हीं राजनितिक पार्टियों ने जैसे ठान रखी हो, ऐसे कैसे बदलने देंगे? एक खास अभियान चला, उसे तहस नहस करने का। यहाँ विजय दांगी, यहाँ विजय कुमारी और यहाँ विजय कुमारी दांगी। खासकर नौकरी वाले ऑफिसियल कम्युनिकेशन में। हालाँकि, सभी पहचान पत्रों में वो विजय दांगी हो चुका था। 

2015 में मुझे अपना  पासपोर्ट Renew करवाना था, मगर पता चला ऑफिशियली नाम में बड़ी गड़बड़ चल रही है। तो एक दो-बार, यहाँ-वहाँ verbally बोला। और बताया गया की typo mistake हैं, आगे से ठीक कर देंगे। 2016 में पासपोर्ट renewal के लिए अप्लाई किया और उसके साथ ही पता चला, अपनी यूनिवर्सिटी से उसके लिए NOC से लेना पड़ेगा। पासपोर्ट renewal के लिए यूनिवर्सिटी से NOC? क्यों? हरि याना सरकार का एक खास ऑर्डर निकला था, उसके तहत। उसके लिए अप्लाई किया, तो पता चला NOC वाले फरहे में ही नाम फिर गड़बड़। उसे ठीक करने को बोला, तो बोला गया की पहले सब डिग्री सर्टिफिकेट में बदलवाओ। बस यही बच गया था, खामखाँ की बकवास करने को जैसे? इस वक़्त तक बाकी सब पहचान पत्रों में वो विजय दांगी था। नौकरी वाले पहचान पत्र तक में। NPS (पेँशन) वाले पहचान पत्र में भी। ओरिएंटेशन कोर्स हो या रिफ्रेशर, कांफ्रेंस हों या वर्कशॉप या सिम्पोजियम या ऐसी ही कोई भी और ड्यूटी, हर सर्टिफिकेट में विजय दांगी। तो अब डिग्रीयों में नाम बदलवाने का क्या लफड़ा रह गया था? खैर! रजिस्ट्रार और VC के ऑफिस के धक्के खाने के बाद वो फाइल यूनिवर्सिटी लीगल सैल पहुँचती है। और आपको लगता है, की ये कुछ ज्यादा ही नहीं हो रहा? अहम नाम नहीं बदला गया है। वो हर जगह, बचपन से आजतक विजय ही है। उसके साथ का सिर्फ कोई adjective बदलना, इतनी बड़ी आफ़त का काम हो सकता है? लीगल सैल से फरमान आता है की इसका एक तरीका है, जैसे 2007 में 2 न्यूज़ पेपर्स में विज्ञापन के तरीके से बदला था, वैसे ही बदल लो। फिर डिग्री में बदलने की जरुरत नहीं पड़ेगी। एक यही तरीका है, ऑफिशियली कहीं भी दिखाने का। 2007 के बाद फिर से 2016 में क्यों? अरे, आपने तब देखा ही नहीं की उन्होंने उसमें किया क्या हुआ था? फिर से देखो ज़रा 

ये विज्ञापन तो, जो 2007 में देखा था, उससे भी अलग लग रहा है? हो सकता है, मुझे ही ढंग से याद ना हो? अब तब तक ये कहाँ पता था, की यहाँ-वहाँ कबाड़ मचाने वाले आपकी फाइल्स और डॉक्युमेंट्स तक बदल सकते हैं, आपके ऑफिस या घर तक रखे हुए? क्या एक आम इंसान का, खामखाँ सा नाम में बदलाव, इतनी अहमियत रखता है, किसी भी राजनितिक पार्टी के लिए? मगर क्यों? खैर। 2016 में नाम ठीक करने का, वो फिर से विज्ञापन जाता है और आखिर पासपोर्ट renewal के लिए NOC मिल जाता है। मगर? अब क्या मगर रह गया? ऐसे ही नहीं? पासपोर्ट renewal ऑफिस द्वारा काफी चक्कर कटवाने के बाद। अच्छे खासे झगड़े और मीडिया में जाने की धमकी के बाद। पासपोर्ट जिस दिन लाना था, उसी दिन हाईवे पर बहादुरगढ़ के पास एक स्कार्पियो (या कोई और SUV?) द्वारा एक्सीडेंट की कोशिश से बचते-बचाते। था क्या ये? समझ ही नहीं आया। मगर, इतना तो समझ आ गया था की कोई तो हैं, जो नहीं चाहते की आप भारत से बाहर जाएँ। मगर कौन और क्यों? इस नाम के हेरफेर में कुछ तो खास है, जो तुम्हारी समझ से बाहर है? नहीं तो एक पासपोर्ट renewal में थोड़े से नाम बदलाव पर इतना बवाल क्यों?

नया पासपोर्ट लेकर, घर सुरक्षित पहुँचने पर, उन दिनों H #16, टाइप-3, MDU, थोड़ा सा तो शुकुन मिला। आखिर एक नाम ठीक करने की फाइल को लेकर मैंने 8-9 महीने, अपनी ही यूनिवर्सिटी में, कभी इस ऑफिस और कभी उस ऑफिस धक्के खाए थे। चलो, पासपोर्ट तो हो गया। मगर ये क्या? इस पासपोर्ट में भी घौटाला? क्या? फिर से कुछ गड़बड़? अब क्या? ये भी ऑनलाइन ही कहीं पढ़ने को मिला, मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया था। मगर क्यों? अब ये क्या था? जानते हैं आगे। 

Saturday, September 20, 2025

Views and Counterviews 90

 There is something amazing about Europe. What's that? 

Language. Or languages? Most countries of Europe, like Indian states have their own language. And it changes place to place like dialects in India from one district to another. You get confused, maybe lil bit irritated, when you don't understand the language of that place you wanna visit? Or you feel that English is International language, have its own impotance, but it cannot intimidate or show its supermacy over local language? Local language has its own importance, its own charm, its own culture and both can complement each other perfectly, without hindering growth or by becoming any obstacles? Right?

कई दिन हो गए ना किसी यूनिवर्सिटी की सैर किए?

तो चलें आज, किसी यूरोप की यूनिवर्सिटी की सैर करने उसीके किसी विडियो के माध्यम से?





अब, दूर से थोड़ा पास Local Flavour देखें? 
अपने महाराष्ट्र के आर्टिस्ट के सँग?

  

Wednesday, September 17, 2025

Views and Counterviews 89

 हमारी आने वाली शिक्षा का भविष्य कुछ-कुछ ऐसा सा होगा, जैसे कोई विडियो या पॉडकास्ट देखना। Podcast? या Modcast? या कोई भी और नाम? 

जैसे किसी भी विषय की किताब में कुछ एक चैप्टर होते हैं, वैसे ही इनमें भी। ये विडियो सीरीज किसी भी नाम से हो सकती हैं और एक ही विषय पर कितने ही लोगों की या उस विषयों के खास जानकारों के। इनमें आपके पास सुविधा होगी, की आपको कौन सा जानकार की सीरीज अच्छे से समझ आ रही है, उसके अनुसार ही आप उन्हें देख पाएँ। दुनियाँ भर से बहुत से अच्छे-अच्छे एक्सपर्ट्स या जानकारों या शिक्षकों के ऐसे विडियो भी आपको मुफ़्त में ऑनलाइन देखने-सुनने को मिल सकते हैं। किसी खास जानकार की सीरीज की बजाय, कोई बड़े बड़े इंस्टिट्यूट भी ऐसी सुविधा आपको ऑनलाइन दे सकते हैं। या कहो की दे रहे हैं। ऐसे में शिक्षकों की भूमिका क्या रहेगी?

ये शिक्षकों की कुछ हद तक जगह जरुर लेंगे। मगर, उनका विकलप नहीं हो सकते। सबसे बड़ी बात, ये गरीबों के लिए या मध्यम वर्ग के लिए, बड़े लाभदायक हैं। क्यूँकि, इनमें आपको किसी भी विषय का एक्सपर्ट बनने के लिए या किसी भी परीक्षा की तैयारी करने के लिए बड़े-बड़े, महँगे शिक्षा संस्थानों की फीस भरने की जरुरत ही नहीं है। या पढ़ने के लिए, वहाँ जाने की भी जरुरत नहीं है। ये सब आप घर बैठे कर सकते हैं, बस इतने से में, जितने में आप इंटरनेट देख पाएँ। प्राइवेट शिक्षण संस्थानों के दबदबे को ख़त्म करने का ये एक कारगार तरीका है। जितने ये पढ़ने वालों के लिए उपयोगी हैं, उतने ही शिक्षकों के लिए भी। खासकर, उन शिक्षकों के लिए, जिन्हें किसी भी वजह से खुद को अपडेट या रिफ्रेश करने का मौका नहीं मिलता। 

जहाँ पे सरकारी शिक्षण संस्थानों के हालात, किसी सरकार की नाकामी की वजह से बदलना संभव ना हो। या ऐसा करने के लिए ज्यादा जद्दो जहद करने की नौबत हो। उसका अल्टरनेटिव ऐसी डिजिटल लाइब्रेरी हो सकती हैं, जिनकी सुविधा आम लोगों को भी मुफ़्त में उपलब्ध हो। ऐसी डिजिटल लाइब्रेरी, जो शिक्षण संस्थानों के अलग-अलग डिग्री प्रोग्रामों पर आधारित हों। जैसे ये स्कूल सिलेबस लाइब्रेरी। ये कॉलेज। ये यूनिवर्सिटी। ये किसी खास परीक्षा की तैयारी वाली लाइब्रेरी। यहाँ शिक्षकों की भूमिका किसी मेंटर या फैसिलिटेटर वाली ज्यादा रहेगी। पिछले कुछ सालों में जैसे कुछ स्कूलों ने, स्कूली पद्धति को ही अकडेमी का नाम दे दिया। या उससे भी पहले, बहुत से स्कूलों ने जैसे नॉन अटेंडिंग का एक ट्रेंड शुरु किया था। ऐसे ही बिहार जैसे या हरियाणा जैसे राज्यों के सरकारी स्कूलों का एक अल्टरनेटिव ऐसी डिजिटल लाइब्रेरी वाली सुविधाएँ हो सकती हैं।  

जैसा पहले ही लिखा है, की ये शिक्षकों की कुछ हद तक जगह जरुर लेंगे। मगर, उनका विक्लप कभी नहीं हो सकते। क्यूँकि, ज्यादातर विषय प्रैक्टिकल आधारित हैं। खासकर, विज्ञान और इंटरडिप्लीनरी। उसपर घर की बजाय, कहीं भी बाहर जाकर पढ़ना, मतलब माहौल ही बदलना। और बदला हुआ माहौल, आपको अपने आप किताबी या डिग्री ज्ञान से आगे बहुत कुछ सिखाता है, जो आप घर या किसी एक जगह रहकर या ऑनलाइन नहीं सीख सकते। आप क्या कहते हैं?